A friend, Sushobhan Avasthi, first showed me this poem about four years ago. Since then I have read this one may times and many others by Dinkar too. Talking about his style, a friend once commented - "It seems he even thinks in musical way!" Indeed, most of Dinkar's poetry has a strong musical quality to it. Another quality which contributes to the "flow" is a very clear-cut division of ideas into small "units" which somehow feel like beads on a string. This is best illustrated by contrasting the following excerpts from Dinkar and Dharmveer Bharti -
और अकुलाती है,
मगर उसकी जड़ें धरती में
बेतरह गड़ी हुईं हैं।
इसलिए हवा के साथ
वह उड़ नहीं पाती है।
- दिनकर (कुंजी)
...... क्योंकि सपना है अभी भी -
इसलिए तलवार टूटे, अश्व घायल
कोहरे डूबी दिशायें,
कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध-धूमिल,
किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी
...... क्योंकि है सपना अभी भी!
- धर्मवीर भारती (क्योंकि)
आग की भीख
धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा,
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा।
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है,
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है?
दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे,
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे।
प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ।
चढ़ती जवानियों का श्रृंगार मांगता हूँ।
बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है,
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है?
मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा,
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा।
तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ।
ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ।
आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुई है,
बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है,
अग्निस्फुलिंग रज का, बुझ डेर हो रहा है,
है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है!
निर्वाक है हिमालय, गंगा डरी हुई है,
निस्तब्धता निशा की दिन में भरी हुई है।
पंचास्यनाद भीषण, विकराल माँगता हूँ।
जड़ताविनाश को फिर भूचाल माँगता हूँ।
मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है,
अरमानआरज़ू की लाशें निकल रही हैं।
भीगीखुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं,
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं,
इनके लिये कहीं से निर्भीक तेज ला दे,
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे।
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हूँ।
विस्फोट माँगता हूँ, तूफान माँगता हूँ।
आँसूभरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे,
मेरे शमशान में आ श्रंगी जरा बजा दे।
फिर एक तीर सीनों के आरपार कर दे,
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वच्छ भर दे।
आमर्ष को जगाने वाली शिखा नयी दे,
अनुभूतियाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे।
विष का सदा लहू में संचार माँगता हूँ।
बेचैन ज़िन्दगी का मैं प्यार माँगता हूँ।
ठहरी हुई तरी को ठोकर लगा चला दे,
जो राह हो हमारी उसपर दिया जला दे।
गति में प्रभंजनों का आवेग फिर सबल दे,
इस जाँच की घड़ी में निष्ठा कड़ी, अचल दे।
हम दे चुके लहु हैं, तू देवता विभा दे,
अपने अनलविशिख से आकाश जगमगा दे।
प्यारे स्वदेश के हित वरदान माँगता हूँ।
तेरी दया विपद् में भगवान माँगता हूँ।
- दिनकर
5 comments:
प्रिय मधुर,
बहुत अच्छी कविता का चयन किया है आपने श्रीमान्। "दिनकर" की कविताओं का वर्णन भी बहुत अच्छा लगा।
CBSE में एक कविता थी, "एक फूल की चाह"। एक शुद्र पिता अपनी बिमार बेटी की आखरी इच्छा पूरी करने के लिये पहाड़ पे बने मन्दिर से फूल लेने जाता है। क्या आपको वह कविता याद है? यदी कहीं से आपको यह कविता मिल जाये, तो ज़रूर डाल दीजियेगा अपने blog पे।
हिन्दी कविताओं की तलाश में अब हम यहां आते ही रहेंगे।
मधुर जी, बहुत बढिया कविता है। दिनकर मेरे पसन्दीदा कवियों में से एक हैं।
My All time favourite... Hows life buddy..very interesting blogs..!!!
well, I and sushobhan have been friends since class 9th in lucknow. This poem has been our favorite evr since we read it in class 9th and i have won many elocution contests by reciting this poem. Some of them were witnessed by him also.
Its of course a gr8 poem.
do read "urvasi" if u like dinkar. Thts the best poem i have read so far.Completely different from "Aag ki .."which is a "vir rash" poem. Pure "Saundriya rash" poem..
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