पूछती है राह मुझसे,
यूॅ बढ़ा किस ओर चला है?
दूर तक फैला है बियाबॉ,
नापने कौनसा तू छोर चला है?
खेला करती ये मुझसे अक्सर,
दोराहों पर लाकर मुझे|
राह ही सवाल है, है यही जवाब भी,
मैं इसे बूझता हूॅ, या ये बूझती मुझे?
दूर तक दिखती लम्बी राह,
कभी अचानक पगडंडियों पे मुड़ जाया करती है|
किसी छोटे से गॉव में मुझे लाकर,
उसी में गुम जाया करती है|
पूछती है मुझसे मानो,
सोच ले क्या यहीं रुकेगा?
क्या यही पाने चला था,
या कुछ दूर और चलेगा?
चल रहा हूॅ संग उसीके,
रास्ता साथी मेरा है|
चाह है देखूॅ कि आगे,
किस मोड़ पर छिपा क्या है?
Saturday, October 07, 2006
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4 comments:
Amazing poetry talent!!!
I am massively impressed.
@vinayak: merci beaucoup
बढ़िया कविता है दोस्त. मज़ा आ गया.
tenku :-)
Kya haal hain?
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