Saturday, January 30, 2010

जिजीविषा

मेरी खिड़की के झरोखे से इक सूखी टहनी दिखती है,

सर्द हवा के झोकों से अकेली जूझती हुई।

कभी बर्फ़ की चादर अोढ़े, कभी ठंडी धूप में ठिठुरते हुए,

कहीं उसे खुद पर दया तो न अाती होगी?

अब तो कमबख्त पत्तों ने भी साथ छोड़ दिया है।

उस ठंडी निर्दय आंधी में कहीं वो सहम तो न जाती होगी?


पर हफ़्तों से देखता हूँ, हार तो नहीं मानी इसने।

जहाँ कई शाखें धराशायी हैं, ये ज्यौं की तयौं डटी है।

टहनी छोटी ही सही, जीवट तो बहुत है!

इतना साहस, इतनी जीवनशक्ति, कहाँ से पाती होगी!


तभी ये बातें हवा ने बाहर जा फुसफुसा दीं।

टहनी मेरी ओर झुक कर, कुछ मुस्कुराकर बोली -

तुम मनुष्य जिजीविषा का अनोखा मतलब लगाते हो!

जीवन को युद्ध मान कर, मुझ पर बेवजह तरस खाते हो।

मैं तो बस ठंडी हवा का आनंद उठाती हूँ।

तब पत्तों के साथ झूमती थी, अब अकेली लहराती हूँ!